चिलचिलाती धूप में भी
खिलखिलाते जा रहे थे
खिलखिलाते जा रहे थे
छोड़ बस्ते, खरगोशों सी
दौड़ लगाए जा रहे थे
दौड़ लगाए जा रहे थे
न थी सुध घर जाने की
न भूख प्यास की थी परवाह
न भूख प्यास की थी परवाह
बचपन की बेफ़िक्री थी
कुछ साथ की भी बात थी
कुछ साथ की भी बात थी
जब देखो, नयी ख़ुराफ़ात,
रोज़ एक नया पंगा किसी से
रोज़ एक नया पंगा किसी से
तो कभी, करना मदद
अनजानों की भी बिन मतलब के
अनजानों की भी बिन मतलब के
न किसी का डर था और
न फ़िक्र दुनियादारी की
न फ़िक्र दुनियादारी की
लड़कपन का जोश था
कुछ साथ की भी बात थी
कुछ साथ की भी बात थी
एक लक्ष्य मन में लेकर
वे थे आगे बढ़ रहे
वे थे आगे बढ़ रहे
जीत हर बाधा से
सफलता की सीढ़ी चढ़ रहे
सफलता की सीढ़ी चढ़ रहे
कोई संशय न था
केवल लगन थी, विश्वास था
केवल लगन थी, विश्वास था
अनुभव का करिश्मा था
कुछ साथ की भी बात थी
कुछ साथ की भी बात थी
अतिथि का सत्कार है क्या
कोई बाबा से पूछता
कोई बाबा से पूछता
सदा मगन कैसे रहें
ये कोई उनसे सीखता
चार माह भी जी न सके पर
ये कोई उनसे सीखता
चार माह भी जी न सके पर
वो तो दादी के बिना
उम्र भी थी हो चली
कुछ साथ की भी बात थी
कुछ साथ की भी बात थी
चारु शर्मा
Very nice
ReplyDeleteAwesome atisundar
ReplyDeleteBeautiful poem
ReplyDeleteBeautiful
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